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विकल्प

  • अस्थिरता, अनिश्चयता मूलक भौतिक-रासायनिक वस्तु केन्द्रित विचार बनाम विज्ञान विधि से मानव का अध्ययन नहीं हो पाया। रहस्य मूलक आदर्शवादी चिंतन विधि से भी मानव का अध्ययन नहीं हो पाया। दोनों प्रकार के वादों में मानव को जीव कहा गया है।
    विकल्प के रूप में अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन विधि से मध्यस्थ दर्शन, सहअस्तित्ववाद में मानव को ज्ञानावस्था में होने का पहचान किया एवं कराया।
    मध्यस्थ दर्शन के अनुसार मानव ही ज्ञाता (जानने वाला), सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व जानने-मानने योग्य वस्तु अर्थात् जानने के लिए संपूर्ण वस्तु है यही दर्शन ज्ञान है इसी के साथ जीवन ज्ञान व मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान सहित सहअस्तित्व प्रमाणित होने की विधि अध्ययनगम्य हो चुकी है।
    अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन ज्ञान, मध्यस्थ दर्शन, सहअस्तित्ववाद-शास्त्र रूप में अध्ययन के लिए मानव सम्मुख मेरे द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
  • अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन के पूर्व मेरी (ए. नागराज, अग्रहार नागराज, जिला हासन, कर्नाटक प्रदेश, भारत) दीक्षा अध्यात्मवादी ज्ञान वैदिक विचार सहज उपासना कर्म से हुई।
  • वेदान्त के अनुसार ज्ञान “ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या” जबकि ब्रह्म से जीव जगत की उत्पत्ति बताई गई।
  • उपासना :- देवी देवताओं के संदर्भ में।

    कर्म :- स्वर्ग मिलने वाले सभी कर्म (भाषा के रूप में)

    मनु धर्म शास्त्र में :- चार वर्ण चार आश्रमों का नित्य कर्म प्रस्तावित है।

    कर्म :- स्वर्ग मिलने वाले सभी कर्म (भाषा के रूप में)

    कर्मकाण्डों में :- गर्भ संस्कार से मृत्यु संस्कार तक सोलह प्रकार के कर्मकाण्ड मान्य है एवं उनके कार्यक्रम है।

    इन सबके अध्ययन से मेरे मन में प्रश्न उभरा कि -।

  • सत्यम् ज्ञानम् अनन्तम् ब्रह्म से उत्पन्न जीव जगत मिथ्या कैसे है? तत्कालीन वेदज्ञों एवं विद्वानों के साथ जिज्ञासा करने के क्रम में मुझे :- समाधि में अज्ञात के ज्ञात होने का आश्वासन मिला। शास्त्रों के समर्थन के आधार पर साधना, समाधि, संयम कार्य संपन्न करने की स्वीकृति हुई। मैंने साधना, समाधि, संयम की स्थिति में संपूर्ण अस्तित्व सहअस्तित्व होने, रहने के रूप में अध्ययन, अनुभव विधि से पूर्ण समझ को प्राप्त किया जिसके फलस्वरूप मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद वाङ्गमय के रूप में विकल्प प्रकट हुआ।
  • आदर्शवादी शास्त्रों एवं रहस्य मूलक ईश्वर केन्द्रित चिंतन ज्ञान तथा परंपरा के अनुसार - ज्ञान अव्यक्त अनिर्वचनीय।
  • मध्यस्थ दर्शन के अनुसार - ज्ञान व्यक्त वचनीय अध्ययन विधि से बोधगम्य, व्यवहार विधि से प्रमाण सर्व सुलभ होने के रूप में स्पष्ट हुआ।

  • अस्थिरता, अनिश्चियता मूलक भौतिकवाद के अनुसार वस्तु केन्द्रित विचार में विज्ञान को ज्ञान माना जिसमें नियमों को मानव निर्मित करने की बात कही गयी है। इसके विकल्प में सहअस्तित्व रुपी अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन ज्ञान के अनुसार अस्तित्व स्थिर, विकास और जागृति निश्चित संपूर्ण नियम प्राकृतिक होना, रहना प्रतिपादित है।
  • अस्तित्व केवल भौतिक रासायनिक न होकर भौतिक रासायनिक एवं जीवन वस्तुएं व्यापक वस्तु में अविभाज्य वर्तमान है यही “मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद” शास्त्र सूत्र है।
  • सत्यापन

  • मैंने जहाँ से शरीर यात्रा शुरू किया वहाँ मेरे पूर्वज वेदमूर्ति कहलाते रहे। घर-गाँव में वेद व वेद विचार संबंधित वेदान्त, उपनिषद तथा दर्शन ही भाषा ध्वनि-धुन के रूप में सुनने में आते रहे। परिवार परंपरा में वेदसम्मत उपासना, आराधना, अर्चना, स्तवन कार्य संपन्न होता रहा।
  • हमारे परिवार परंपरा में शीर्ष कोटि के विद्वान सेवाभावी तथा श्रमशील व्यवहाराभ्यास एवं कर्माभ्यास सहज रहा जिसमें से श्रमशीलता एवं सेवा प्रवृत्तियाँ मुझको स्वीकार हुआ। विद्वता पक्ष में प्रश्नचिन्ह रहे।
  • प्रथम प्रश्न उभरा कि -
    ब्रह्म सत्य से जगत व जीव का उत्पत्ति मिथ्या कैसे?
    दूसरा प्रश्न -
    ब्रह्म ही बंधन एवं मोक्ष का कारण कैसे?
    तीसरा प्रश्न -
    शब्द प्रमाण या शब्द का धारक वाहक प्रमाण?
    आप्त वाक्य प्रमाण या आप्त वाक्य का उद्गाता प्रमाण?
    शास्त्र प्रमाण या प्रणेता प्रमाण?
    समीचीन परिस्थिति में एक और प्रश्न उभरा
    चौथा प्रश्न -
    भारत में स्वतंत्रता के बाद संविधान सभा गठित हुआ जिसमें राष्ट्र, राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय चरित्र का सूत्र व्याख्या ना होते हुए जनप्रतिनिधि पात्र होने की स्वीकृति संविधान में होना।
    वोट-नोट (धन) गठबंधन से जनादेश व जनप्रतिनिधि कैसा?
    संविधान में धर्म निरपेक्षता - एक वाक्य एवं उसी के साथ अनेक जाति, संप्रदाय, समुदाय का उल्लेख होना।
    संविधान में समानता - एक वाक्य, उसी के साथ आरक्षण का उल्लेख और संविधान में उसकी प्रक्रिया होना।
    जनतंत्र - शासन में जनप्रतिनिधियों की निर्वाचन प्रक्रिया में वोट नोट का गठबंधन होना।
    ये कैसा जनतंत्र है?
  • इन प्रश्नों के जंजाल से मुक्ति पाने को तत्कालीन विद्वान, वेदमूर्तियों, सम्माननीय ऋषि महर्षियों के सुझाव से -
    • अज्ञात को ज्ञात करने के लिए समाधि एक मात्र रास्ता बताये जिसे मैंने स्वीकार किया।
    • साधना के लिए अनुकूल स्थान के रूप में अमरकण्टक को स्वीकारा।
    • सन् 1950 से साधना कर्म आरम्भ किया।
      सन् 1960 के दशक में साधना में प्रौढ़ता आया।
    • सन् 1970 में समाधि संपन्न होने की स्थिति स्वीकारने में आया। समाधि स्थिति में मेरे आशा विचार इच्छायें चुप रहीं। ऐसी स्थिति में अज्ञात को ज्ञात होने की घटना शून्य रही यह भी समझ में आया। यह स्थिति सहज साधना हर दिन बारह (12) से अट्ठारह (18) घंटे तक होता रहा। समाधि, ध्यान, धारणा क्रम में संयम स्वयम् स्फूर्त प्रणाली मैंने स्वीकारा। दो वर्ष बाद संयम होने से समाधि होने का प्रमाण स्वीकारा। समाधि से संयम संपन्न होने की क्रिया में भी 12 घंटे से 18 घंटे लगते रहे। फलस्वरूप संपूर्ण अस्तित्व सहअस्तित्व सहज रूप में होना रहना मुझे अनुभव हुआ। जिसका वाङ्गमय “मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद” शास्त्र के रूप में प्रस्तुत हुआ।
  • सहअस्तित्व :- व्यापक वस्तु में संपूर्ण जड़ चैतन्य संपृक्त एवं नित्य वर्तमान होना समझ में आया।
    सहअस्तित्व में ही :- परमाणु में विकासक्रम के रूप में भूखे एवं अजीर्ण परमाणु एवं परमाणु में ही विकास पूर्वक तृप्त परमाणुओं के रूप में ‘जीवन’ होना, रहना समझ में आया।
    सहअस्तित्व में ही :- गठनपूर्ण परमाणु चैतन्य इकाई – ‘जीवन’ रूप में होना समझ में आया।
    सहअस्तित्व में ही :- भूखे व अजीर्ण परमाणु, अणु व प्राणकोषाओं से ही संपूर्ण भौतिक, रासायनिक व प्राणावस्था रचनायें तथा परमाणु अणुओं से रचित धरती तथा अनेक धरतियों का रचना स्पष्ट होना समझ में आया।
  • अस्तित्व में भौतिक रचना रुपी धरती पर ही यौगिक विधि से रसायन तंत्र प्रक्रिया सहित प्राणकोषाओं से रचित रचनायें संपूर्ण वन-वनस्पतियों के रूप में समृद्ध होने के उपरांत प्राणकोषाओं से ही जीव शरीरों का रचना रचित होना और मानव शरीर का भी रचना संपन्न होना व परंपरा होना समझ में आया।
  • सहअस्तित्व में ही :- शरीर व जीवन के संयुक्त रुप में मानव परंपरा होना समझ में आया।
    सहअस्तित्व में, से, के लिए :- सहअस्तित्व नित्य प्रभावी होना समझ में आया। यही नियतिक्रम होना समझ में आया।
  • नियति विधि :- सहअस्तित्व सहज विधि से ही :-

    (i) अस्तित्व में चार अवस्थाएं

    • पदार्थ अवस्था
    • प्राण अवस्था
    • जीव अवस्था
    • ज्ञान अवस्था

    और

    (ii) अस्तित्व में चार पद

    • प्राणपद
    • भ्रांति पद
    • देव पद
    • दिव्य पद

    (iii) और

    • विकास क्रम, विकास
    • जागृति क्रम, जागृति

तथा जागृति सहज मानव परंपरा ही मानवत्व सहित व्यवस्था समग्र व्यवस्था में भागीदारी नित्य वैभव होना समझ में आया। इसे मैंने सर्वशुभ सूत्र माना और सर्वमानव में शुभापेक्षा होना स्वीकारा फलस्वरूप चेतना विकास मूल्य शिक्षा, संविधान, आचरण व्यवस्था सहज सूत्र व्याख्या मानव सम्मुख प्रस्तुत किया हूँ।

भूमि स्वर्ग हो, मनुष्य देवता हो,
धर्म सफल हो, नित्य शुभ हो।

- ए. नागराज, 2005