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यथार्थता वास्तविकता सत्यता

भूमिका

आदिकाल से ही मानव चैतन्य जीवन और शरीर का संयुक्त साकार रूप है, जीव चेतनावश भय प्रलोभन रूप में जीवन शक्तियाँ पहले भी काम करती रही है, अभी भी काम कर रही हैं। इस आधार पर वर्तमान में भ्रम-निर्भ्रम संबंधी परीक्षण करने जाते है तब पता चलता है कि :-

  • मानव सर्वप्रथम कल्पनाओं को सत्य समझता (मानता) है।
  • विचारों के आधार पर सत्य समझता है।
  • इच्छाओं के आधार पर सत्य समझता है।
  • इस ढंग से चलता हुआ आदमी, आँखों से दिखता है, उसे सत्य, यंत्र प्रयोग से प्राप्त परिणामों को सत्य, गणितीय अथवा तार्किक निष्कर्षों के आधार पर सत्य, ध्यान के स्थितियों में जो कुछ भी देखा होगा, उसके आधार पर सत्य, समाधि ज्ञान को सत्य का आधार माना है | जो कुछ भी हो, सत्य का स्वरूप अभी तक सार्वभौम विधि से, व्यवहार विधि से स्पष्ट नहीं कर पाए | जो भी त्रुटियाँ रही, उसे तर्क संगत बनाने के लिए अनेक महापुरुषों द्वारा अथक प्रयास हुआ | हमने समाधि को देखा है | समाधि में हमको पूर्ण ज्ञान हुआ नहीं | संयम करने से अस्तित्व में अनुभूत हुए |
    अर्थात, मानव:

  • बोध के आधार पर सत्य समझता है।
  • अनुभव के आधार पर सत्य समझता है।
  • यह अनुभव सहज उद्घाटन मानव सम्मुख प्रस्तुत है

यथार्थता

  • जिसमें जो अर्थ वर्तमान है। स्वभाव सहज प्रकाशन |
  • ब्रह्म सत्य जगत शाश्वत

वास्तविकता

  • वस्तु अपने स्वरूप में वर्तमान। वस्तु का तात्पर्य वास्तविकता को व्यक्त करने से है।
  • रूप, गुण सामरस्यता प्रकाशन और रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का अविभाज्य वर्तमान क्रिया।
    • - जो जैसा है, वह उसकी वास्तविकता है।
    • - जो जिस पद में है वह उसकी वास्तविकता है।

सत्यता

  • स्थिति सत्य, वस्तु स्थिति सत्य एवं वस्तुगत सत्य।
  • सहअस्तित्व में ऊर्जा व ज्ञान सहित पदों के अनुरूप मौलिकता की अभिव्यक्ति।
  • अस्तित्व में नित्य वर्तते हैं वह सत्यता है। अनुभव केवल सत्य में होता है, जो व्यापक सत्ता है | सत्यता का दर्शन होता है, जो जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति की सीमा है | दर्शन आकृतिविहीन नहीं है | दर्शन अस्तित्व में, से के लिए है |

स्थिति सत्य

  • त्रिकालाबाध अस्तित्व।
  • सत्ता में संपृक्त (भीगा, घिरा, डूबा) जड़-चैतन्य प्रकृत्ति।

वस्तुगत सत्य

  • प्रत्येक एक में पाये जाने वाले रूप गुण स्वभाव धर्म।
  • प्रकृति में अवोभाज्य रूप अर्थात आकार आयतन घन; गुण अर्थात सम विषम मध्यस्थ गतियाँ; स्वभाव अर्थात गुणों कि उपयोगिता एवं मौलिकता; धर्म अर्थात धारणा, स्थिति –गति रूप में स्पष्ट |

वस्तु स्थिति सत्य

  • दिशा, काल, देश का प्रकाशन सहज ज्ञान सम्पन्नता। यह सामयिक सत्य है |

यथार्थ

  • ब्रह्म सत्य, जगत शाश्वत ।
  • ब्रह्म (सत्ता) व्यापक, जीवन पुंज अनेक।
  • जीवन पुंज में अविभाज्य आत्मा, बुद्धि, चित्त, वृत्ति, मन।
  • जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में मानव का वैभव।
  • ईश्वर व्यापक, देवता अनेक।
  • मानव जाति एक, कर्म अनेक।
  • भूमि (अखण्ड राष्ट्र) एक, राज्य अनेक।
  • मानव धर्म एक, समाधान अनेक।
  • जीवन नित्य, जन्म-मृत्यु एक घटना।

वास्तविकता

  • सहअस्तित्व में विकास क्रम, विकास ।
  • जागृति क्रम, जागृति ।
  • जागृति पूर्वक अभिव्यक्तियाँ समझदार मानव परम्परा ।

सत्यता

  • सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति ही सृष्टि ।
  • प्रकृति ही नियति ।
  • नियति ही व्यवस्था ।
  • व्यवस्था ही विकास एवं जागृति ।
  • विकास एवं जागृति ही सृष्टि है ।
  • नियम ही न्याय, न्याय ही धर्म, धर्म ही सत्य, सत्य ही ऐश्वर्य (सहअस्तित्व), ऐश्वर्यानुभूति ही आनन्द, आनन्द ही जीवन, जीवन में नियम है ।
  • भ्रमित मानव ही कर्म करते समय स्वतन्त्र एवम् फल भोगते समय परतन्त्र है ।
  • जागृत मानव कर्म करते समय तथा फल भोगते समय स्वतंत्र है ।

स्रोत: परिभाषा संहिता | अन्य लेख |
मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता एवं लेखक: अग्रहार नागराज