अवधारणायें > मानवीय शिक्षा नीति का प्रारूप
१- १ यह प्रारुप मध्यस्थ दर्शन पर आधारित है । यह दर्शन चार भागों में है-
१. मानव-व्यवहार- दर्शन
२. मानव-कर्म-दर्शन
३. मानव - अभ्यास-दर्शन
४. मानव - अनुभव - दर्शन
२-१ वर्तमान में मनुष्य में पाई जाने वाली सामाजिक, (धार्मिक) आर्थिक एवं राज्यनैतिक विषमताएं ही समरोन्मुखता हैं ।
३ - १ मानवीयता की सीमा में धार्मिक, (सामाजिक) आर्थिक राज्य नैतिक समन्वयता रहेगी, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य प्राप्त अर्थ का सदुपयोग एवं सुरक्षा चाहता हैं अस्तु अर्थ की सदुपयोगात्मक नीति ही धर्म नीति, सुरक्षात्मक नीति ही, राज्यनीति है और साथ ही अर्थ के सदुपयोग के बिना सुरक्षा एवं सुरक्षा के बिना सदुपयोग सिद्ध नहीं है । इसी सत्यतावश मानव धार्मिक आर्थिक राज्यनैतिक पद्धति व प्रणाली से सम्पन्न होने के लिये बाध्य है ।
४- १ मानवीयता-पूर्ण जीवन को स्थापित करना।
४-२ मानवीयता को अक्षुण्णता हेतु मानवीय संस्कृति, सभ्यता तथा उसकी स्थापना एव संरक्षण हेतु विधि व व्यवस्था का अध्ययन कराना है इससे मनुष्य के चारो आयामों (व्यवसाय, व्यवहार विचार एवम् अनुभूति) तथा पांचो स्थितियों (व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं अंतरराष्ट्र) की एक सूत्रता, तारतम्यता एवं अनन्यता प्रत्यक्ष हो सकेगी। फलस्वरुप समाधानात्मक भौतिकवाद, व्यवहारात्मक जनवाद एवं अनुभवात्मक अध्यात्मवाद मनुष्य जीवन में चरितार्थ एवं सर्वसुलभ हो सकेगा । यही प्रत्येक मनुष्य की प्रत्येक स्थिति में बौद्धिक समाधान एवं भौतिक समृद्धि है और साथ ही यह मानव का अभीष्ट भी है ।
४- ३ व्यक्तित्व एवं प्रतिभा के संतुलन उदय को पाना ।
४-४ समस्त प्रकार की वर्ग भावनाओं को मानवीय चेतना में परिवर्तन करना ।
४-५ सह-अस्तित्व एवं समाधानपूर्ण सामाजिक चेतना को सर्व सुलभ करना ।
४-६ प्रत्येक व्यक्ति जन्म से हो न्याय का याचक है एव सहो करना चाहता है उसमें न्याय प्रदायी क्षमता तथा सही करने की योग्यता प्रदान करना।
४- १ प्रत्येक मनुष्य जीवन में अनिवार्यता एवं आवश्यकता के रूप में पाये जाने वाले बौद्धिक समाधान एवं भौतिक समृद्धि की समन्वयता को स्थापित करना
४- शिक्षा प्रणाली, पद्धति एवं व्यवस्था की एक सूत्रता को मानवीयता की सीमा में स्थापित करना ।
४-६ प्रकृति के विकास एवं इतिहास के अनुषंगिक मनुष्य, मनुष्य-जीवन, लक्ष्य, जीवनीक्रम तथा जीवन के कार्यक्रम को स्पष्ट तथा अध्ययन सुलभ करना ।
४-१० विश्वविद्यालय, महाविद्यालय, विद्यालय शाला एव शिक्षा मन्दिरों की गुणात्मक एकता एवं एक-सूत्रता को स्थापित करना ।
४-११ उन्नत मनोविज्ञान के संदर्भ में निरन्तर शोध एवं अनुसंधान व्यवस्था को प्रस्थापित करना ।
४- १२ प्रत्येक विद्यार्थी और व्यक्ति को अखण्ड समाज के भागीदार के रूप में प्रतिष्ठित करना ।
४-१३ शिक्षक, शिक्षार्थी एवं अभिभावक की तारतम्यता को व्यवहार शिक्षा के आधार पर स्थापित करना ।
४-१४ विगत वर्तमान एवं श्रागत पीढ़ी की परस्परता के प्रत्येक स्तर में तारतम्यता, एक-सूत्रता, सौजन्यता, सहकारिता, दायित्व तथा कर्तव्यपालन योग्य क्षमता का निर्माण करना ।
४-१५ मानवीय संस्कृति, सभ्यता विधि एवं व्यवस्था सम्बन्धी शिक्षा को सर्वसुलभ बनाना ।
४- १६ प्रत्येक मनुष्य में अधिक उत्पादन एवं कम उपभोग योग्य क्षमता को प्रस्थापित करना ।
४-१७ व्यक्तित्व व प्रतिभा सम्पन्न स्थानीय व्यक्तियों के सम्पर्क में शिक्षार्थी एवं शिक्षकों को लाने की व्यवस्था प्रदान करना ।
५ -१ वर्तमान बिन्दु में वास्तविकताएं यह स्पष्ट करती हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी न्यूनतम बुनियादी शिक्षा प्राप्त हो जिससे मानवीयता की सीमा में व्यक्ति की स्वतंत्रता, स्वत्व, अधिकार, सामाजिक दायित्व एवं कर्तव्य-क्षमता को स्थापित कर सके ताकि व्यक्तित्व और प्रतिभा का संतुलन उदय हो सके । इसके फलस्वरूप सामाजिक समानता, अधिक उत्पादन कम उपभोग पूर्वक अर्थ विषम प्रभाव का उन्मूलन होगा और साथ ही प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक अभ्युदय में भागीदार हो सकेगा ।
६- १ शिक्षा प्रणाली एवं पद्धति राष्ट्रीय सीमावर्ती रहेगी ।
६- २ जाति, वर्ग एवं सम्प्रदाय विहीन अखण्ड समाज को पाने के लिये सार्वभोमिक सामाजिक, (धार्मिक) आर्थिक एवं राज्यनैतिक नीति रहेगी।
६- ३ नियति क्रम में पाई जाने वाली प्रकृति के विकास एवं इतिहास में मानव जीवन, जीवनीक्रम एवं जीवन के कार्यक्रम को अनुसरण करने वाली नीति रहेगी, जो समाधानात्मक भौतिकवाद, व्यवहारात्मक जनवाद एवं अनुभवात्मक अध्यात्मवाद पर आधारित है ।
६-४ प्राकृतिक एवं वैकृतिक ऐश्वर्य के सम्पत्तिकरण नीति के स्थान पर साधनीकरण करने वाली नीति रहेगी ।
६-५ ग्रामीण एवं शहरी जीवन की दूरी मिटाने वाली, ग्रामीण जीवन में जो दयनीय भावनायें हैं उसे समाप्त करनेवाली एवं ग्रामीण जीवन के प्रति गौरव एवं अनिवार्यता को स्थापित करने वाली नीति रहेगी ।
६-६ शिक्षा में औपचारिकता गौण रहेगी, उसके स्थान पर प्रयोगिकता एवं व्यवहारिकता प्रधान शिक्षा नीति रहेगी ।
७- १ शिक्षा के सभी विषयों को सभी स्तरों में उद्देश्य की पूति हेत बौधगम्य एवं सर्व सुलभ बनाने, सार्वभौम नीतित्रय (धार्मिक, आर्थिक, राज्य नैतिक) में दृढ़ता एवं निष्ठा प्रस्थापित करने तथा वर्तमान में पढ़ाये जाने वाले प्रत्येक विषय को समग्रता से सम्बन्ध रहने के लिये -
क - विज्ञान के साथ चैतन्य पक्ष का ।
ख - मनोविज्ञान के साथ संस्कार पक्ष का ।
ग- दर्शनशास्त्र के साथ क्रिया पक्ष का |
घ - अर्थशास्त्र के साथ प्राकृतिक एव बैकृतिक ऐश्वर्य की सदुपयोगात्मक एवं सुरक्षात्मक नीति पक्ष का ।
च - राज्यनीति शास्त्र के साथ मानवीयता के संरक्षणात्मक तथा संवर्धनात्मक नीतिपक्ष का।
छ - समाज शास्त्र के साथ मानवीय संस्कृति व सभ्यता पक्ष का ।
ज - भूगोल और इतिहास के साथ मानव तथा मानवीयता का ।
भा— साहित्य के साथ तात्विक पक्ष का अध्ययन अनिवार्य है क्योंकि इसके बिना इसकी पूर्णता सिद्ध नहीं होती ।
७- २ इतिहास में उन मौतिक घटनाओं व प्रेरणाओं को वरीयता के रूप में अध्ययन करने की व्यवस्था रहेगी जो मानवीयता पूर्ण जीवन के लिये प्रेरणादायी होगी ।
७-३ शिक्षा के द्वारा उस वस्तु एवम् विषय का प्रबोधन किया जायेगा जिसका प्रत्यक्ष रूप व्यवहार, व्यवसाय एवं व्यवस्था होगी ।
ए. नागराज शर्मा
श्री भजनाश्रम, श्री नर्मदांचल
अमरकंटक, जि. शहडोल ( म.प्र.)