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मानवीय राष्ट्रीयता का प्रारूप (आंशिक)

मानवीय राष्ट्रीयता का आधार

मानवीयता मनुष्य की स्वभावगति है । स्वभावगति में उसके गुणात्मक परिवर्तन का अधिकार व निरन्तरता स्पष्ट होती है। अग्रिम विकास तब तक होता रहता है जब तक मनुष्य इकाई को सत्ता में अनुभव न हो जाय। यही विकासपूर्णता है। यही समाधान एवं समाधान ही निरन्तरता है ।

स्वभावगति में हस्तक्षेप से काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद एवं मात्सर्य उत्पन्न होता है, जो आवेशित गति है। आवेशित गति को सामान्य बनाने के लिये वातावरण का दबाव ही अनुशासन, सामान्य गति को बनाये रखना ही शासन एवं उसकी निरन्तरता ही प्रभुसत्ता अथवा प्रबुद्धतापूर्ण सत्ता है। यही निपूणता, कुशलता एवं पांडित्यपूर्ण संस्कृति, सभ्यता, विधि एवं व्यवस्था है।

पांडित्य स्वयं में विधि है जिसके आधार पर नीति, कार्य पद्धति एवं विषय वस्तु का निर्धारण एवं निस्सरण होता है। न्यायान्याय, धर्माधर्म, सत्यासत्य का ज्ञान ही पांडित्य है । पांडित्य मनुष्य के कार्य व्यवहार, आचरण, अभ्यास एवं विकास का मूल स्त्रोत एवं लक्ष्य है। कुशलता एवं निपुणता, शिष्टता एवं व्यवसाय के आधार एवं समृद्धि के लक्ष्य हैं। पांडित्य के अभाव में कुशलता एवं निपुणता की उपयोगिता का ध्रुवीकरण नहीं हो पाता है।

निपुणता एवं कुशलता का अधिकार उपयोगिता एवं सुन्दरता मूल्य की सीमा में उपादेयी होता है। पांडित्य में जीवन मूल्य अथवा स्थापित मूल्यानुभव या प्रमाण क्षमता या अधिकार है। प्रमाणिकता स्वतः सुख, शांति, सन्तोष एवं आनन्द है । यही मन, वृति चित्त, बुद्धि एवं आत्मा के संबंध में निर्विषमता है। प्रमाणिकता मनुष्य का अधिकार परम है ।

मानवीयता पूर्ण पद्धति से आचरण व व्यवहार करने के लिये मनुष्य स्वतंत्र है। मनुष्य का मानवीयता पर स्वत्व होता है। स्वत्व, स्वतंत्रता एवं अधिकार का संयुक्त प्रकाशन संस्कृति, सभ्यता एवं राष्ट्रीयता है। जिसका विधि में चरितार्थ होना ही व जनवादिता एवं व्यवस्था में प्रभावशील होना ही क्रान्तिकारिता है। विकास की ओर जीवन की अबाधगति स्वतः क्रान्तिकारिता एवं जनवादिता तथा जन्म की अभयता स्वयं में जनवादिता एवं उत्पादनीयता है। यही राष्ट्रीयता की निरन्तरता है ।

मानवीय राष्ट्रीयता का लक्ष्य

  • बौद्धिक समाधान व्यक्ति में,
  • बौद्धिक समाधान सहित भौतिक समृद्धि परिवार में,
  • बौद्धिक समाधान भौतिक समृद्धि सहित अभय (मानव में निहित अमानवीयता के भय से मुक्ति) व्यवहार व व्यवस्था में, समाज एवं राष्ट्र में ।
  • बौद्धिक समाधान, भौतिक समृद्धि एवं अभयतापूर्ण सह-अस्तित्व मानव में, से, के,लिये

प्रक्रिया

जीवन-मूल्य की अपेक्षा में स्थापित मूल्य, शिष्ट मूल्य एवं व्यवसाय मूल्य पर आधारित व्यवस्था, शिक्षा, प्रकाशन, प्रदर्शन, प्रचार, आचरण, अनुसरण

संभावना

प्रत्येक व्यक्ति में नियमपूर्वक व्यवसाय, न्यायपूर्वक व्यवहार, समाधान पूर्वक विचार एवं सत्य में अनुभूत होने की संभावना समानत: है क्योंकि मनुष्य जन्म से न्याय का याचक, सही करने का आशावादी एवं सत्यवक्ता है। इसे सफल बनाने की दिशा में ही समाज, राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता की संभावना सिद्ध होती है ।

फलतः व्यक्ति में मानवीयता पूर्ण आचरण करने, परिवार में उसका सहयोगी बनने समाज में उसका प्रोत्साहन करने, राष्ट्र में उसका संरक्षण एवं संवर्धन करने तथा अन्तर्राष्ट्र में उसके लिए अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण एवं निर्वाह होने की स्पष्ट संभावना है जिसके चरितार्थ होने की स्थिति में ही यह विश्व राष्ट्रीयता या अखण्ड सामाजिकता है ।

विश्व राष्ट्रीयता या अखण्ड सामाजिकता

विश्व राष्ट्रीयता या अखण्ड सामाजिकता उत्पादनीयता, जनवादिता एवं क्रान्तिकारिता ( विकास- शीलता) का संयुक्त रुप है। ये तीनों अन्योन्याश्रित तत्व हैं। उत्पादन क्षमता जनवाद के लिये, जनवाद विकास (क्रान्ति) के लिये एवं क्रान्ति उत्पादन के लिये योगदायी तथ्य हैं। उत्पादन क्षमता, जनवाद एवं विकास का सम्मिलित रुप ही संस्कृति एवं सभ्यता है। यही सामाजिकता है।

उत्पादन समृद्धि को, जनवाद न्याय सुलभता एवं अभयता को तथा क्रान्ति गुणात्मक परिवर्तन को सिद्ध करती है, जो प्रत्येक मनुष्य की आद्यन्त कामना है। क्रान्ति प्रत्येक मनुष्य के विकास के सन्दर्भ में, जनवाद सामाजिक आचरण के सन्दर्भ में, एवं उत्पादन मानव मात्र की समृद्धि के सन्दर्भ में स्पष्ट एवं चरितार्थ होता है।

उत्पादनीयता निपुणता व कुशलतापूर्वक सही कार्य करने की क्षमता = उत्पादन में विपुलता = समृद्धि = अमय

जनवादिता

न्याय प्रदायी एवं न्याय सुलभ क्षमता में पूर्णता = कुशलता एवं पांडित्य

  • न्यायसुलभता
  • प्रमाणिकता
  • सतर्कता
  • सह अस्तित्व
  • = अभय ।

क्रान्तिकारिता =

  • मानवीयता से देव मानवीयता और दिव्य मानवीयता
  • नित्य समाधान
  • सजगता
  • अभय

उक्त तीनों तत्वों से परिपूर्ण होने की आशा, आकांक्षा एवं लक्ष्य को दृष्टि में रखकर मानव राष्ट्रीयता या अखण्ड सामाजिकता का अध्ययन एवं व्यवहार करता है, कर रहा है या करने के लिये बाध्य है । उक्त तीनों तथ्य मानवीयता में सफल, अमानवीयता (वर्ग या सम्प्रदाय) में असफल एवं अतिमानवीयता में परम सफल हैं। सफलता ही अखण्ड मानव समाज की निरन्तरता का प्रकाशन है ।

आचार संहिता =

मनुष्य की परिभाषा

मन के आकार को साकार करने वाली अर्थात सामान्य एवं महत्वाकांक्षी आवश्यकताओं की पूर्ति एवं शिष्टता के रूप में तथा मनः स्वस्थता अर्थात सुख, शांति, संतोष एवं आनन्द (समाधान) के आशावादी इकाई की मानव संज्ञा है न कि केवल भोगों में आशावादी इकाई की ।

मानवीयता की व्याख्या

मनुष्य में पाये जाने वाले स्वभाव दृष्टि एवं विषयों में प्रवृति एवं निवृति का विश्लेषण मानवीयता की व्याख्या है।

मानवीय संस्कृति

मानवीयता ही मानवीय संस्कृति का अविरत स्त्रोत् है । इसके आधार पर सामाजिकता में पूर्णता, व्यक्ति में मौलिकता एवं उसके मौलिक अधिकारों का विधि व व्यवस्था में संप्रभुता के असंदिग्ध रूप में होना मानवीय संस्कृति है न कि अमानवीयता वादी ।

मानवीय सभ्यता

मानवीयता पूर्ण सभ्यता का आचरण एवं व्यवहार नियम त्रय के रूप में विश्लेषित किया जाता है। नियम त्रय का तात्पर्य बौद्धिक, सामाजिक एवं प्राकृतिक अर्थात् मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ किये जाने वाले कार्य व व्यवहार से है जिससे मूल्य त्रय की तारतम्यता स्पष्ट हो सके। यही व्यवस्था की मौलिकता है न कि आवेशित गति अर्थान काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य जो अमानवीयता है।