अवधारणायें > ज्ञान
मानव में ज्ञान की परिचर्चा, कल्पना एवं उपदेश आदिकाल से होता आया रहा है | अध्यात्मवादियों के अनुसार “ब्रह्म ही ज्ञान ” है | परन्तु इसके स्वरूप को स्पष्ट नहीं कर पाए | ब्रह्म को व्यापक कहा | व्यापक क्या है पूछने से बोल दिया ‘ब्रह्म ब्रह्म में व्याप्त’ है | और ऐसे बहुत सारे बातें रही हैं | सत्यम ज्ञानम अनंतम ब्रह्मम बोलकर जीव जगत और ब्रह्म में सम्बन्ध स्पष्ट नहीं हो पाया | किसी ने जगत को मिथ्या कह दिया | किसी ने इश्वर के इच्छा से पैदा होता है, कह दिया | भगवतवाद, इश्वरवाद, देवीवाद, शून्यवाद के चलते यह सब रहस्य में फस गया |
भौतिकवाद के अनुसार यंत्र को ज्ञान का आधार माना | इन्द्रिय क्षमता को बढाता है यंत्र | जबकि, यंत्र को आदमी ही बनाता है | गणितीय विधि से तर्क संगत पद्धति को विज्ञान माना गया है | विज्ञान को ही ज्ञान को स्वरूप माना | जबकि, गणित आँखों से अधिक और समझ से कम है | इस विधि से विज्ञान पद्धति भौतिक-रासायनिक संसार तक गिरफ्त होकर रह गया |
इस विधि से ज्ञान का स्वरूप २०वी शताब्दी तक मानव को स्पष्ट नहीं हो पाया |
अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन, साधना, समाधि, संयम से संपन्न हुआ है | अस्तित्व में अध्ययन एवं अनुभव के फलस्वरूप यह मानव सम्मुत प्रस्तुत है | इसको मैंने स्वयं अनुभव किया है | अध्यात्मवादियों के अनुसार समाधि में ज्ञान होता है | हमको समाधि में ब्रह्म ज्ञान नहीं हुआ | समाधि में हमारा आशा विचार इच्छाएं चुप हो गयी | इसी को परम्परा में निर्विचार स्थिति भी खा है | इसका हम दृष्टा बने रहे | गहरे पानी में डूबकी लगाकर आँखें खोलने से जैसे लगता है, वैसे लगता रहा | समाधि का कोई व्यवहारिक प्रयोजन नहीं निकला | समाधि को परीक्षण करने के क्रम में हमने अज्ञात को ज्ञात करने के लिए आकाश में संयम किया | फलस्वरूप अस्तित्व में अनुभूत हुए | ब्रह्म स्वरूप, मानव स्वरूप, जगत स्वरूप, चैतन्य स्वरूप स्पष्ट हुआ |
ज्ञान वचनीय, समझने योग्य, समझाने योग्य, जीने योग्य वस्तु के रूप में पहचान में आया है | साथ ही में चेतना, जगत, प्रकृति के प्रकटन, चैतन्य जीवन, जन्म, मरण, देवी, देवता, भूत, प्रेत, इत्यादि सम्बंधित सभी प्रश्नों का उत्तर तर्क संगत विधि से प्राप्त हो चुकी है |
यह भी सत्यापित कर रहा हूँ कि सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व में गठनपूर्ण परमाणु के रूप में जीवन का अध्ययन किया हूँ जिसमें आशा, विचार, इच्छा का प्रकटन मानव परंपरा में हो चुका है। जीव परपरा में जीने की आशा रूप प्रकट हो चुकी है। सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व में अस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान के संयुक्त रूप में मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान ध्रुवीकृत होना रहना का सपूर्ण आयाम दिशा, कोण, परिप्रेक्ष्यों में वर्चस्वी, सकारात्मक, फल परिणाम को प्रस्तुत करने योग्य अध्ययन किया हूँ।
यह अध्ययन विधिवत होने पर विश्वास करना मेरा कर्तव्य हो गया है कि यह केवल मेरा ही समाधान नहीं है अपितु सपूर्ण मानव जाति के लिए समाधान है। इसे प्रस्तुत करते समय सोच-विचार से शब्द, शब्द से वाक्य, वाक्य से प्रयोजन इन तीन मुद्दों के आशय को परिभाषा द्वारा मानव समुख प्रस्तुत किया हूँ। इसे अध्ययन करते हुए मानव अपने मंतव्य को व्यक्त कर सकता है।
इस प्रस्तुति में भाषा अर्थात् शब्द परपरागत है परिभाषा मेरे द्वारा दिया गया है। परिभाषा परपरा का नहीं है। इस विधि से इसे एक विकल्पात्मक रूप में हर मानव अपने में अनुभव कर सकता है। जिससे ही सर्वशुभ होने की सपूर्ण संभावना है।
| अस्तित्व दर्शन ज्ञान | जीवन ज्ञान | मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान |
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| सर्वत्र सदा सदा विद्यमान, पारगामी पारदर्शी व्यापक वस्तु में भीगे, डूबे, घिरे जड़-चैतन्य रूपी प्रकृति चार अवस्था में धरती पर है, इसके रूप गुण स्वभाव धर्म सहज त्व सहित व्यवस्था-समग्र व्यवस्था में भागीदारी है। | परमाणु में गठनपूर्णता अर्थात जीवन पद, क्रियापूर्णता अर्थात मानवीयता पूर्ण सामाजिकता, आचरणपूर्णता अर्थात पूर्ण अनुभूति और उसके क्रिया कलापों को जानना मानना। | मूल्य, चरित्र, नैतिकता का अविभाज्य वर्तमान रूप में किया गया सम्पूर्ण कार्य, व्यवहार, विचार विन्यास। |
| यही अस्तित्व, अनुभव में प्रमाण, अनुभव सहज तद्रूप विधि से मानसिकता होना पाया जाता है। | स्वधन, स्वनारी, स्वपुरुष दयापूर्ण कार्य व्यवहार विन्यास। सम्बन्धों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, तन, मन, धन रूपी अर्थ की सुरक्षा और सदुपयोग। |
अनुभव में आनन्द, व्यवसाय में नियम, अपरिणामता के कारण पूर्ण, सर्वत्र एक सा अनुभव में आने के कारण ईश्वर, ज्ञान में समस्त क्रियायें संरक्षित एवं नियंत्रित होने के कारण लोकेश, सर्वत्र एक सा विद्यमान रहने के कारण व्यापक, चैतन्य होने के कारण चेतना, आत्मा से अति सूक्ष्मतम एवं असीम अरूप होने के कारण परमात्मा, प्रत्येक वस्तु संपृक्त होकर सचेष्ट होने के कारण निरपेक्ष शक्ति, संपूर्ण प्रकृति का आधार होने के कारण मूल सत्ता एवं प्राण।
प्रामाणिकता = जाना हुए को मानना एवं माने हुए को जानना = समझ = अस्तित्व में, से, के लिए द़ृष्टा पद = ज्ञाता पद = व्यापकता में जड़-चैतन्य प्रकृति का संपृक्तता पूर्ण स्वीकृति निरंतरता।
विवेचनात्मक प्रक्रिया जो प्रयोजनीयता के अर्थ में, उपयोगिता, सदुपयोगिता को और जीवन का अमरत्व शरीर का नश्वरत्व व व्यवहार के नियम को विवेचना पूर्वक प्रकाशन क्रिया। विवेक स्वयं के सामाजिक मूल्यों को विश्लेषण पूर्वक स्पष्ट करता है |
लक्ष्य के लिए दिशा निर्धारित करना; कालवादी, क्रियावादी, निर्णयवादी सूत्रों से दिशा निर्धारित करना; जागृति सहज प्रमाण सर्वतोमुखी समाधान संपन्नता।
स्रोत: परिभाषा संहिता | अन्य लेख |
मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता एवं लेखक: अग्रहार नागराज