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दृष्टा, दृश्य दर्शन

जीवन ही दृष्टा है-मानव परंपरा में जागृति प्रमाणित होता है।

दृष्टा पद का सर्वप्रथम उपलब्धि शरीर का दृष्टा होना ही है। शरीर का दृष्टा होने के आधार पर ही ऊपर इंगित किये गये तथ्य स्पष्ट हुआ है। उक्त तथ्यों को हृदयंगम करने से जागृति की संभावना समीचीन होती ही है। इसी आशय से यह अभिव्यक्ति है। दृष्टा होने का सतत फलन यही है हर स्थिति-गति, योग-संयोग, फल-परिणाम परिपाक और प्रवृत्तियों का मूल्यांकन होना सहज हो जाता है। जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान सम्पन्न मानव मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान का मूल्यांकन, अस्तित्व सहज प्रयोजन का मूल्यांकन करता है। यह महिमा अस्तित्व कैसा है स्पष्टतया समझने के उपरान्त सफल हो जाता है और सफल होना देखा गया है।

ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता : के रूप में भी चर्चाएँ प्रचलित रही हैं। इस संदर्भ में भी कोई अंतिम निष्कर्ष अध्ययन गम्य होना सम्भव नहीं हुआ था। अब अस्तित्वमूलक, मानव केन्द्रित चिन्तन, विचार अध्ययन और प्रमाण त्रय के अनुसार ज्ञान जीवन कार्यकलाप ही है। इसे अन्य भाषा से जागृतिपूर्ण जीवन कार्यकलाप ही ज्ञान है। सहअस्तित्व ज्ञेय है अर्थात् जानने योग्य वस्तु है। सहअस्तित्व में जीवन अविभाज्य रूप में वर्तमान रहता है। जीवन नित्य होना सुस्पष्ट हो चुकी है। इसलिये जीवन जागृति के अनन्तर जागृति की निरंतरता स्वाभाविक है। इन तथ्यों के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है जागृत जीवन ही ज्ञाता है। जीवन सहित सम्पूर्ण अस्तित्व ही ज्ञेय है और जागृत जीवन का परावर्तन क्रियाकलाप ही ज्ञान है।

अस्तित्व में अनुभव का परावर्तन = प्रामाणिकता = ज्ञान विवेक विज्ञान = (परावर्तन में)
अस्तित्व में अनुभूत (अनुभवपूर्ण) जीवन = ज्ञाता (प्रत्यावर्तन में)
अस्तित्व = ज्ञेय = सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति

अस्तित्व में अनुभव की स्थिति में ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता में एकरूपता सहअस्तित्व के रूप में होना देखा गया है जो ऊपरवर्णित विधि से स्पष्ट है।

कार्य, कारण, कर्ता : सहज मुद्दे पर भी मानव में चर्चा का विषय रहा है। ऊपर वर्णित दृष्टा, कर्ता, भोक्ता क्रम में कार्य, कारण, कर्ता का स्पष्ट कार्य प्रणाली समझ में आता है। यह मुद्दा रहस्यमय ईश्वर केन्द्रित विचार और अनिश्चियता मूलक वस्तु केन्द्रित विचार के अनुसार सदा-सदा प्रश्न चिन्ह के चंगुल में ही रहते आये। इसका भी कोई समाधान अध्ययनगम्य नहीं हो पाया था। अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित विचारधारा के अनुसार कार्य कारण का दृष्टा जीवन ही है। सत्ता में संपृक्त प्रकृति रूपी सहअस्तित्व ही कार्य, कारण के रूप में नित्य वर्तमान है। सहअस्तित्व ही कार्य का कारण रूप है। सहअस्तित्व ही कार्य रूप है।

अतएव मानव ही कर्त्ता पद में है और सम्पूर्ण अस्तित्व ही कार्य-कारण पद में है। कार्य-कारण विधि से ही कर्त्ता पद प्रतिष्ठा ज्ञानावस्था में देखा गया है।

साधन, साध्य और साधक : का प्राचीन समय से चर्चा और अनुसरण की वस्तु (विषय) मानते हुए चले आता हुआ मानव परंपरा में स्पष्ट रूप में प्रस्तुत है। साधक के रूप में मानव को, साध्य के रूप में मानव व जीवन लक्ष्य को, साध्य और साधक के बीच में दूरी को घटाकर लक्ष्य सामीप्य, सान्निध्य, समरुप्य क्रम में प्रमाणित ही होने के क्रम में प्रयुक्त सभी उपाय साधनों के नाम से जाना जाता है। साधन के रूप में कल्पना किया गया सम्पूर्ण उपाय अनेकानेक उपायों का सम्मिलित स्वरूप में साधक होना देखा गया है। इस विधि में मानव बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक तक विभिन्न समुदाय परंपराओं में विभिन्न प्रकार के साध्य का नाम प्रचलित किया हुआ देखा गया है। इस प्रकार के साध्य का नाम अनेक होना देखा गया है। अनेक नाम के रूप में प्राप्त साध्य के लिये संतुष्टिदायी वचन प्रणाली जिसको हम प्रार्थना कह सकते हैं। अर्चना प्रणाली जिसको हम पूजा कह सकते हैं, इसे कहके, करके दिखाने का भी प्रक्रियाएँ सम्पन्न हुई है। इसी आधार पर किसी आकार प्रकार की वस्तु को ध्यान करने की बात भी किया जाता है। ऐसी ध्यान में हर साधक में निहित कल्पनाशीलता का ही प्रयोग होना देखा गया है।